Author: BhaktiParv.com
भूमिका
गीता का तृतीय अध्याय – कर्म योग जीवन की सबसे व्यावहारिक शिक्षा देता है।
यह अध्याय श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का वह भाग है जहाँ भगवान कर्म के रहस्य को स्पष्ट करते हैं।
यदि दूसरा अध्याय “ज्ञान योग” था, तो तीसरा अध्याय “ज्ञान को कर्म में उतारने की कला” है।
यह अध्याय बताता है कि केवल ज्ञान पर्याप्त नहीं, कर्म के बिना जीवन अधूरा है।
(अर्जुन का प्रश्न – कर्म या ज्ञान, कौन श्रेष्ठ?)
अर्जुन भ्रमित होकर पूछते हैं —
“हे जनार्दन! यदि ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ है, तो फिर आप मुझे युद्ध जैसे कर्म के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं?”
यह प्रश्न हर साधक के मन में आता है —
क्या केवल ध्यान और ज्ञान से मुक्ति संभव है, या हमें कर्म भी करना चाहिए?
(श्रीकृष्ण का उत्तर – कर्म से ही जीवन संभव है)
भगवान श्रीकृष्ण मुस्कराकर कहते हैं —
“न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।”
भावार्थ:
“कर्म छोड़े बिना कोई व्यक्ति कर्म-रहित (मुक्त) नहीं हो सकता।”
श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि जब तक शरीर है, तब तक कर्म अनिवार्य है।
लेकिन जब कर्म “स्वार्थ से रहित” और “ईश्वर को समर्पित” होता है — तभी वह कर्म योग कहलाता है।
(निष्काम कर्म – कर्म का सबसे पवित्र रूप)
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
भावार्थ:
“तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं।”
यह वही सिद्धांत है जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय में बताया और अब विस्तार से समझाया।
कर्म को करते रहो, लेकिन उसका परिणाम भगवान पर छोड़ दो।
जब कर्म पूजा बन जाए, तो जीवन योग बन जाता है।
(कर्तव्य का महत्व – स्वधर्म सर्वोच्च है)
“श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।”
भावार्थ:
“अपना धर्म चाहे साधारण क्यों न हो, पराया धर्म श्रेष्ठ नहीं हो सकता।”
यह श्लोक आधुनिक जीवन का सबसे बड़ा संदेश देता है —
दूसरों की नकल मत करो, अपने कर्तव्य को निष्ठा से निभाओ।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं —
“तुम्हारा धर्म युद्ध करना है। यदि तुम उससे भागोगे, तो यह अधर्म होगा।”
(त्याग नहीं, समर्पण – यही सच्चा योग है)
कई लोग सोचते हैं कि त्याग का अर्थ कर्म से पलायन है।
पर श्रीकृष्ण कहते हैं —
“योगः कर्मसु कौशलम्।”
भावार्थ:
“योग का अर्थ है कर्म में कुशलता।”
सच्चा योग वही है जिसमें मनुष्य कर्म करते हुए भी भीतर से शांत, समर्पित और संतुलित रहता है।
यहाँ त्याग का अर्थ है — अहंकार और फल की आसक्ति का त्याग।
(लोकसंग्रह – कर्म समाज के हित के लिए)
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।”
भावार्थ:
“श्रेष्ठ पुरुष जो करता है, सामान्य लोग वही अनुकरण करते हैं।”
श्रीकृष्ण कहते हैं — जब कोई ज्ञानी व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से कार्य करता है,
तो उसका कर्म पूरे समाज को प्रेरणा देता है।
इसलिए कर्म केवल व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक उत्थान का साधन भी है।
(कर्म से भगवद्भक्ति तक)
कृष्ण कहते हैं —
“सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य।”
भावार्थ:
“अपने सभी कर्म मुझे अर्पित कर दो।”
यह श्लोक कर्म को भक्ति से जोड़ता है।
जब कर्म भगवान के चरणों में अर्पित हो जाता है,
तो हर कार्य पूजा बन जाता है, हर दिन साधना।
(अकर्म – कर्म में रहते हुए भी मुक्त रहना)
भगवान बताते हैं —
“कर्मण्यकर्म यः पश्येत् स बुद्धिमान्मनुष्येषु।”
भावार्थ:
“जो कर्म में भी अकर्म (अहंकार रहित समर्पण) देखता है, वही सच्चा ज्ञानी है।”
जब मनुष्य कर्म करता है, पर भीतर अहंकार नहीं रखता, तब वह कर्म बंधन नहीं बनता — वह मुक्ति का मार्ग बन जाता है।
(आधुनिक जीवन में कर्म योग का संदेश)
| जीवन की स्थिति | कर्म योग का समाधान |
|---|---|
| काम का तनाव | कर्म को पूजा मानो, फल की चिंता छोड़ो। |
| असफलता का भय | जो होगा, भगवान की इच्छा से होगा। |
| निर्णय में उलझन | धर्मानुसार कार्य करो। |
| जिम्मेदारी का बोझ | कर्म को सेवा बनाओ, बोझ नहीं। |
| समाज के लिए योगदान | जो करो, सबके हित के लिए करो। |
यही है कर्म योग —
जहाँ हर कार्य, हर क्षण और हर सांस भगवान की भक्ति बन जाती है।
FAQ
Q1. कर्म योग क्या है?
कर्म योग वह मार्ग है जहाँ व्यक्ति अपने कर्तव्यों को निःस्वार्थ भाव से ईश्वर को समर्पित करता है।
Q2. क्या कर्म योग केवल कर्म करने की बात करता है?
नहीं, यह कर्म में समर्पण और भावनात्मक संतुलन की शिक्षा देता है
Q3. “योगः कर्मसु कौशलम्” का क्या अर्थ है?
इसका अर्थ है — कर्म को कुशलता और पूर्ण समर्पण से करना ही योग है।
Q4. कर्म योग को जीवन में कैसे अपनाएँ?
हर कार्य को भगवान की सेवा मानकर करें, बिना परिणाम की चिंता के।
Q5. क्या कर्म योग से मुक्ति संभव है?
हाँ, जब कर्म स्वार्थरहित और समर्पित हो, तो वही कर्म मोक्ष का मार्ग बन जाता है।
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