(अर्जुन विषाद योग)
Author: BhaktiParv.com
भूमिका
श्रीमद्भगवद्गीता का पहला अध्याय – श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद समूचे गीता ज्ञान का द्वार है।
यह अध्याय “अर्जुन विषाद योग” कहलाता है क्योंकि इसमें अर्जुन के मन का मोह, करुणा और धर्म-संकट प्रकट होता है।
युद्धभूमि कुरुक्षेत्र में धर्म और अधर्म, कर्तव्य और मोह, मन और आत्मा का संघर्ष दिखाया गया है।
(योद्धाओं की गणना और सामर्थ्य)
श्लोक 1.1
धृतराष्ट्र उवाच —
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥
भावार्थ:
राजा धृतराष्ट्र ने पूछा — “हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे पुत्रों और पांडवों ने क्या किया?”
👉 यही प्रश्न “पहला अध्याय – श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद” की शुरुआत बनता है।
श्लोक 1.2
संजय उवाच —
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥
भावार्थ:
संजय ने कहा — हे राजन्! जब दुर्योधन ने पांडवों की सेना को युद्ध-व्यूह में खड़ा देखा, तो वे अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास गए और बोले।
श्लोक 1.3–6
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥
भावार्थ:
हे आचार्य! पांडवों की यह विशाल सेना देखिए, जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य धृष्टद्युम्न ने सजाया है।
इसमें भीम-अर्जुन जैसे महावीर, युयुधान, विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकितान, काशीराज, पुरुजित, कुन्तीभोज, शैव्य, युधामन्यु, उत्तमौजा, अभिमन्यु और द्रौपदी के पुत्र जैसे महान महारथी उपस्थित हैं।
श्लोक 1.7–9
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥
भावार्थ:
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! हमारी सेना में भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और भूरिश्रवा जैसे महान योद्धा हैं, जो युद्ध में प्रवीण और मेरे लिए अपने जीवन का बलिदान देने को तत्पर हैं।
श्लोक 1.10–11
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥
भावार्थ:
हमारी सेना भीष्म पितामह के संरक्षण में असीम है, जबकि पांडवों की सेना सीमित है।
अतः आप सब अपने-अपने स्थानों पर दृढ़ रहें और पितामह भीष्म की रक्षा करें।
(योद्धाओं द्वारा शंख-ध्वनि)
श्लोक 1.12–13
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥
भावार्थ:
कुरुवंश के वृद्ध पितामह भीष्म ने हर्षपूर्वक सिंहगर्जना जैसी ध्वनि में शंख बजाया।
तत्पश्चात् नगाड़े, मृदंग और सींगों की ध्वनि से सम्पूर्ण वातावरण गूंज उठा।
श्लोक 1.14–15
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥
भावार्थ:
सफेद घोड़ों से जुते दिव्य रथ पर बैठे श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपने शंख बजाए।
श्रीकृष्ण ने ‘पाञ्चजन्य’, अर्जुन ने ‘देवदत्त’, और भीम ने ‘पौण्ड्र’ नामक महाशंख बजाया।
(अर्जुन का सैन्य निरीक्षण)
श्लोक 1.20–21
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥
भावार्थ:
जब युद्ध प्रारंभ होने वाला था, तो हनुमान अंकित ध्वज वाले अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा —
“हे अच्युत! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करें।”
श्लोक 1.22–23
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥
भावार्थ:
“मैं देखना चाहता हूँ कि इस युद्ध में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना है,
और कौन लोग दुर्योधन के पक्ष में युद्ध के लिए एकत्र हुए हैं।”
श्लोक 1.24–25
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥
भावार्थ:
संजय ने कहा — “अर्जुन की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण ने रथ को भीष्म और द्रोण के सामने रोककर कहा —
हे पार्थ! देखो, यहाँ कुरुवंश के सभी योद्धा युद्ध के लिए एकत्र हुए हैं।”
(अर्जुन का विषाद)
श्लोक 1.28–30
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥
भावार्थ:
“हे कृष्ण! जब मैं अपने स्वजनों को युद्ध के लिए खड़ा देखता हूँ, तो मेरा शरीर काँपने लगता है, मुँह सूख जाता है, धनुष हाथ से छूट जाता है।”
👉 यह अर्जुन की मानसिक स्थिति है — कर्तव्य बनाम करुणा।
श्लोक 1.31–32
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥
भावार्थ:
“हे केशव! मुझे कोई शुभ लक्षण नहीं दिखता। मैं विजय, राज्य या सुख नहीं चाहता। अपने ही लोगों को मारकर मुझे कौन-सा सुख मिलेगा?”
श्लोक 1.34–36
आचार्याः पितरः पुत्राः पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥
भावार्थ:
“हे मधुसूदन! मैं अपने गुरुजनों, पितामहों, भाइयों और मित्रों को नहीं मार सकता —
तीनों लोकों के राज्य के लिए भी नहीं, फिर पृथ्वी के लिए तो प्रश्न ही नहीं।”
श्लोक 1.40–44
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥
भावार्थ:
अर्जुन कहते हैं — “हे कृष्ण! जब अधर्म बढ़ता है, तो कुल की स्त्रियाँ दूषित होती हैं, और उनके कारण समाज में अव्यवस्था फैलती है।
कुलधर्म के नष्ट होने पर अधर्म पूरे परिवार को निगल जाता है।”
श्लोक 1.46–47 (अंतिम)
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥
भावार्थ:
“यदि निःशस्त्र होकर भी धृतराष्ट्र के पुत्र मुझे युद्ध में मार डालें, तो वह मेरे लिए बेहतर होगा।”
संजय कहते हैं — “यह कहकर अर्जुन ने धनुष-बाण त्याग दिए और शोकग्रस्त होकर रथ में बैठ गए।”
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Final Thoughts
“पहला अध्याय – श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद” केवल युद्धभूमि की कथा नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर के युद्ध का दर्पण है।
अर्जुन का विषाद ही ज्ञान की शुरुआत बनता है —
जहाँ भ्रम समाप्त होता है, वहीं से भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश आरंभ होता है।
यह अध्याय हमें सिखाता है कि जब मन अस्थिर हो, तो ईश्वर की ओर मुड़ो, अपने अंदर झाँको और अपने “धर्म” को पहचानो।
FAQ
Q1. “पहला अध्याय – श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद” को अर्जुन विषाद योग क्यों कहा गया है?
क्योंकि इसमें अर्जुन के मन में उठे विषाद (शोक) और भ्रम का वर्णन है, जो आगे ज्ञान का कारण बनता है।
Q2. इस अध्याय का मुख्य संदेश क्या है?
धर्म, कर्तव्य और करुणा में संतुलन बनाना — यही सच्चा जीवन-योग है।
Q3. अर्जुन की दुविधा आज के समय में क्यों महत्वपूर्ण है?
क्योंकि हर व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी “अर्जुन क्षण” का अनुभव करता है, जहाँ निर्णय कठिन हो जाता है।
Q4. अर्जुन ने युद्ध करने से मना क्यों किया?
क्योंकि अर्जुन अपने रिश्तेदारों, गुरुओं और मित्रों को देखकर करुणा से भर गए।
उन्हें लगा कि अपने ही लोगों को मारना अधर्म होगा।
Q5. क्या अर्जुन का विषाद कमजोरी थी?
नहीं, अर्जुन का विषाद कमजोरी नहीं बल्कि आत्मज्ञान की शुरुआत थी।
यही विषाद आगे चलकर गीता के उपदेश का कारण बना।
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